यह सब पढ़कर आपको थोड़ा डर लग रहा होगा, कि किशोरावस्था एक कठिन समय है जिसे किसी तरह पार करना पड़ेगा। पर दरअसल यह जीवन का एक दिलचस्प चरण भी हो सकता है। इस दौरान आप बहुत-सी नई बातें सीखते हैं, कई बदलावों से गुज़रते हैं और उनका सामना भी करते हैं। ये अनुभव आपके व्यक्तित्व और चरित्र को सँवारते हैं। चाहे आप लड़का हों या लड़की, बड़े बनने के लिए आपको इस अवस्था से गुज़रना ही पड़ेगा। आपको यह भी याद रखना है कि सभी इस अवस्था से गुज़रते हैं पर सबकी प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार एक जैसा नहीं होते। यह मुमकिन है कि हमने जो बातें की, वे सब शायद आप पर लागू न हों। यह भी याद रखिए, कि ये परिवर्तन सब में एक ही वक़्त पर, एक ही उम्र में नहीं आते। शायद आपमें से कुछ लोगों में ये परिवर्तन शुरू हो गए हैं तो कुछ में ये होनेवाले हैं। हमें यह बात समझनी है कि ये शारीरिक और मानसिक परिवर्तन बड़े होने का एक हिस्सा हैं। जब हम यह समझ लेंगे तब ही हम इनका सामना कर पाएँगे।
किशोर और किशोरियों द्वारा लिखे गए कुछ पत्र यहाँ दिए गए हैं। इन पत्रों को पढ़कर यह समझने की कोशिश करिए, कि वे किस तरह की समस्याओं से गुज़र रहे हैं। हर एक पत्र के बाद एक सलाह दी गई है। यह सलाह, किशोरावस्था को अच्छी तरह समझने वाले एक समझदार व्यक्ति ने दी है। सलाह पढ़कर हमें बताएँ कि आप उसके बारे में क्या सोचते हैं।
पत्र 1
हर महीने के पहले इतवार को हम बुआजी के घर जाकर पूरा दिन बिताते हैं। बुआजी मेरे पापा की बड़ी बहन हैं पर उनके लिए माँ समान हैं। पापा जब दो साल के थे तब दादी चल बसी और बुआ ने उनको पाला-पोसा। इतवार को हमारी बस्ती में क्रिकेट मैच होनेवाला था। मैंने पापा से कहा कि इस बार मैं उनके साथ बुआ के घर नहीं आऊँगा। बाप रे, यह सुनते ही मानो पहाड़ टूट पड़ा! वे कहने लगे, ‘‘क्या क्रिकेट मैच बुआजी से ज़्यादा ज़रूरी है? क्या तुम्हें अपने परिवार की परवाह ही नहीं है?’’ कर्तव्य और निष्ठा पर एक भाषण सुना दिया। मैं भी बुआजी को पसंद करता हूँ, पर पापा को इतना तमाशा करनी की क्या ज़रूरत है? मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने कह दिया कि अब मैं अपने फैसले खुद ले सकता हूँ, वैसे भी हर इतवार को वहाँ जाकर मुझे बोरियत होती है। अगर माँ बीच में न आती तो उस वक़्त पापा मेरी धुलाई कर देते। तब से पापा ने एक ही रट लगा रखी है: मैं मुँहफट हूँ, स्वार्थी हूँ, बड़ों की इज्ज़त नहीं करता, आपे से बाहर हो रहा हूँ, वगैरह, वगैरह। मुझे सिर्फ़ एक इतवार अपने लिए चाहिए था। पर वे समझना ही नहीं चाहते। तो फिर मैं भी उनकी बात क्यों सुनूँ? आजकल हम दोनों लड़ते ही रहते हैं। मुझे नहीं पता कि मैं क्या करूँ। क्या आप मेरी मदद कर सकते हो?
[Contributed by ankit.dwivedi@clixindia.org on 12. Juli 2024 09:36:35]
यह सब पढ़कर आपको थोड़ा डर लग रहा होगा, कि किशोरावस्था एक कठिन समय है जिसे किसी तरह पार करना पड़ेगा। पर दरअसल यह जीवन का एक दिलचस्प चरण भी हो सकता है। इस दौरान आप बहुत-सी नई बातें सीखते हैं, कई बदलावों से गुज़रते हैं और उनका सामना भी करते हैं। ये अनुभव आपके व्यक्तित्व और चरित्र को सँवारते हैं। चाहे आप लड़का हों या लड़की, बड़े बनने के लिए आपको इस अवस्था से गुज़रना ही पड़ेगा। आपको यह भी याद रखना है कि सभी इस अवस्था से गुज़रते हैं पर सबकी प्रतिक्रियाएँ और व्यवहार एक जैसा नहीं होते। यह मुमकिन है कि हमने जो बातें की, वे सब शायद आप पर लागू न हों। यह भी याद रखिए, कि ये परिवर्तन सब में एक ही वक़्त पर, एक ही उम्र में नहीं आते। शायद आपमें से कुछ लोगों में ये परिवर्तन शुरू हो गए हैं तो कुछ में ये होनेवाले हैं। हमें यह बात समझनी है कि ये शारीरिक और मानसिक परिवर्तन बड़े होने का एक हिस्सा हैं। जब हम यह समझ लेंगे तब ही हम इनका सामना कर पाएँगे।
किशोर और किशोरियों द्वारा लिखे गए कुछ पत्र यहाँ दिए गए हैं। इन पत्रों को पढ़कर यह समझने की कोशिश करिए, कि वे किस तरह की समस्याओं से गुज़र रहे हैं। हर एक पत्र के बाद एक सलाह दी गई है। यह सलाह, किशोरावस्था को अच्छी तरह समझने वाले एक समझदार व्यक्ति ने दी है। सलाह पढ़कर हमें बताएँ कि आप उसके बारे में क्या सोचते हैं।
पत्र 1
हर महीने के पहले इतवार को हम बुआजी के घर जाकर पूरा दिन बिताते हैं। बुआजी मेरे पापा की बड़ी बहन हैं पर उनके लिए माँ समान हैं। पापा जब दो साल के थे तब दादी चल बसी और बुआ ने उनको पाला-पोसा। इतवार को हमारी बस्ती में क्रिकेट मैच होनेवाला था। मैंने पापा से कहा कि इस बार मैं उनके साथ बुआ के घर नहीं आऊँगा। बाप रे, यह सुनते ही मानो पहाड़ टूट पड़ा! वे कहने लगे, ‘‘क्या क्रिकेट मैच बुआजी से ज़्यादा ज़रूरी है? क्या तुम्हें अपने परिवार की परवाह ही नहीं है?’’ कर्तव्य और निष्ठा पर एक भाषण सुना दिया। मैं भी बुआजी को पसंद करता हूँ, पर पापा को इतना तमाशा करनी की क्या ज़रूरत है? मुझे भी गुस्सा आ गया। मैंने कह दिया कि अब मैं अपने फैसले खुद ले सकता हूँ, वैसे भी हर इतवार को वहाँ जाकर मुझे बोरियत होती है। अगर माँ बीच में न आती तो उस वक़्त पापा मेरी धुलाई कर देते। तब से पापा ने एक ही रट लगा रखी है: मैं मुँहफट हूँ, स्वार्थी हूँ, बड़ों की इज्ज़त नहीं करता, आपे से बाहर हो रहा हूँ, वगैरह, वगैरह। मुझे सिर्फ़ एक इतवार अपने लिए चाहिए था। पर वे समझना ही नहीं चाहते। तो फिर मैं भी उनकी बात क्यों सुनूँ? आजकल हम दोनों लड़ते ही रहते हैं। मुझे नहीं पता कि मैं क्या करूँ। क्या आप मेरी मदद कर सकते हो?