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भाऊ, सुमन दीदी की चौखट पर बैठकर अपनी माँ का चेहरा ताक रहा था। कड़ी मेहनत से पड़ी झुर्रियों वाला चेहरा, आज थका-हारा लग रहा था। उसे याद आया कि माँ की आँखें उसे देखकर चमक उठती थीं। वही आँखें आज बुझी-बुझी लग रही थीं। माँ के चेहरे के भाव बता रहे थे कि उसके सभी सपने चूर-चूर हो गए थे। ये देखकर भाऊ के दिल को बहुत ठेस पहुँची। उसने माँ का सपना तोड़ दिया था। आशा से चमकती और प्यार छलकाती हुई माँ की आँखें ही उसकी ज़िंदगी थीं। वह अब इस बात को समझ गया था। सोनाबाई वहाँ से उठ गई। अब कहने को कुछ नहीं बचा था। उसके पास जो थोड़े-बहुत पैसे थे, वो अपने बेटे को थमाकर गाँव चली गई। उसने पीछे मुड़कर भाऊ को नहीं देखा। भाऊ के चेहरे पर एक दृढ़ निश्चय था। उसे अपने जीवन का लक्ष्य मिल गया था।

 

भाऊ गरीब बच्चों के छात्रावास में रहने लगा। उसने कुछ वर्षों तक अपनी माँ या अरुण सर से कोई संपर्क नहीं रखा। कभी-कभी उन्हें खबर मिल जाती थी कि वह कॉलेज में पढ़ रहा है और ठीक-ठाक है। चार वर्ष बीत गए। एक दिन सोनाबाई खेत में काम कर रही थी। एक व्यक्ति अखबार लेकर दौड़ता हुआ उसके पास आया। अखबार में खबर छपी थी, कि भाऊ गावंडे कॉलेज की परीक्षा में पहले नंबर से पास हुआ है! सोनाबाई की आँखों से खुशी के आँसु छलकने लगे। भाऊ, माँ और अरुण सर से मिलने गाँव आया। सबने उसका स्वागत किया और जश्न मनाया। इसके बाद जश्न मनाने के कई अवसर आए। भाऊ एक शिक्षक बना और उसने आगे पढ़ाई भी की। इस तरह कामयाबी के शिखर छूते हुए वह शिक्षा विभाग में सबसे बड़ा अफसर बना।  



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