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“अरुण सर, कुछ कीजिए, उसे पढ़ना ही होगा! अगर उसे स्कूल से निकाल दिया गया, तो उसकी ज़िंदगी बरबाद हो जाएगी। उसे भी मेरी तरह दूसरों के खेतों में पसीना बहाना पड़ेगा।” सोनाबाई ने गिड़गिड़ा कर कहा। अरुण सर गाँव की स्कूल में पढ़ाते थे। सोनाबाई विधवा थी और उनके घर में नौकरानी का काम करती थी। उसके पास न पैसा था, न ज़मीन न जायदाद। उसकी सारी उम्मीदें उसके बेटे भाऊ पर टिकी थीं। वह चाहती थी कि भाऊ खूब पढ़े। पर भाऊ का पढ़ाई में मन नहीं लगता था। हर रोज़ वह किसी न किसी से झगड़ा मोल लेता था। एक दिन तो उसने हद ही कर दी। उसने एक शिक्षक पर पत्थर फेंके और जिस वजह से उसे स्कूल से निकाल दिया गया। अब सोनाबाई अरुण सर से मिन्नतें कर रही थी कि वे भाऊ को स्कूल आने दॆं।

 

पर भाऊ काफी खुश था कि अब उसे स्कूल नहीं जाना पड़ेगा। अरुण सर को सोनाबाई पर दया आ रही थी। उन्होंने हेडमास्टर से भाऊ के बारे में विनती की। गाँव के बड़े-बूढ़ों ने भी आग्रह किया और आखिर में हेडमास्टर मान गए। लेकिन भाऊ पर तो आज़ादी से रहने का नशा सवार था। कई कोशिशों के बाद भी वह स्कूल में नहीं गया। सोनाबाई रोज़ उसे फुसलाती, कोसती, पीटती थी, पर इनका कोई असर न हुआ। भाऊ भी अरुण सर के घर पर अपनी माँ के साथ काम करने लगा।

 

[Contributed by ankit.dwivedi@clixindia.org on 27. Februar 2018 12:46:15]


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